भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में गिना जाता है-औसत उम्र करीब 28.4 साल. यानी आधे से ज्यादा आबादी 30 साल से कम उम्र की. कॉलेज, स्टार्टअप, टेकनोलॉजी, स्किलिंग, वैल्यू-बेस्ड करियर…युवा देश तेजी से आगे बढ़ना चाहता है. लेकिन विडंबना देखिए, इसे चलाने वाले नेताओं की औसत उम्र 60 से 70 साल के बीच है. सवाल साफ है-युवा देश, बूढ़े राजनेताओं के भरोसे कब तक?
राजनीति की उम्र बढ़ी, लेकिन युवाओं की हिस्सेदारी घटी
रिसर्च बताती है- 2024 लोकसभा में सांसदों की औसत उम्र: 58 साल, 70 से ऊपर की उम्र के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ रही है और 25–40 साल के युवा सांसद सिर्फ 6–7% के बीच. बता दें कि यह संख्या पिछले दो दशकों में लगभग स्थिर है-यानी नए चेहरों का असल में प्रवेश नहीं हो रहा है. राजनीति की कुर्सी एक बार मिल जाए तो नेता दशकों तक चिपके रहते हैं. पार्टी हाईकमान भी “अनुभव” के नाम पर युवाओं को हाशिए पर ही रखता है. कई पार्टियों ने “युवा संगठन” तो बनाए, लेकिन उन्हें सिर्फ बैनर, पोस्टर और सोशल मीडिया तक सीमित कर दिया गया.
युवाओं को राजनीति में आने से क्या रोकता है?
रिसर्च और ग्राउंड रिपोर्ट्स की मानें तो असली बाधाएं ये हैं-
1) वंशवाद: टिकट का सबसे बड़ा आधार—वंश और परिवार
2) पैसा–बल–प्रभाव: युवा कार्यकर्ता ग्राउंड लेवल पर मेहनत करते हैं, लेकिन ऊपर आते-आते सिस्टम उन्हें थका देता है.
3) राजनीतिक प्रशिक्षण की कमी: देश में राजनीति को पेशे के तौर पर सीखने की व्यवस्था अभी भी कमजोर है.
4) गठजोड़ और गुटबाज़ी: मजबूत संगठन होते हुए भी सत्ता दल और विपक्ष—दोनों में युवाओं की भूमिका औपचारिक रह जाती है.
युवाओं के मुद्दे कौन उठाएगा अगर युवाओं की आवाज़ ही नहीं पहुँचे?
आज देश के असली मुद्दे सीधे तौर पर युवाओं से जुड़े हैं. प्रमुख मुद्दें जैसे बेरोज़गारी,स्टार्टअप विफलता,स्किल गैप,प्रतियोगी परीक्षाओं में घोटाले,महंगाई,डिजिटल भ्रम और गलत सूचना और मानसिक स्वास्थ्य हैं. लेकिन संसद में जब बहस होती है, तो जिस पीढ़ी ने इन संकटों को कभी झेला ही नहीं-वही फैसले कर रही है. यही कारण है कि नीतियां या तो जमीन से कट चुकी लगती हैं या युवाओं के टोन-टेम्पो को पकड़ ही नहीं पातीं.
क्या बदलाव का वक्त आ गया है?
रिसर्चर्स का साफ मत-वोटिंग पैटर्न पूरी तस्वीर बदल सकता है. 18–35 साल के मतदाता कुल वोटरों का लगभग 45% हैं. अगर यह समूह ठान ले कि उसे “युवा सोच, आधुनिक विजन और साफ सियासत” चाहिए, तो सियासत की औसत उम्र एक दशक में बदल सकती है.
देश को अनुभव चाहिए-लेकिन ताज़गी भी
बात उम्र की नहीं, मानसिकता की है. भारत ऐसे नेताओं की मांग कर रहा है जो टेक्नोलॉजी समझें,ग्लोबल मुद्दों को पढ़ें,क्लाइमेट चेंज, AI, डिजिटल पॉलिसी जैसी नई चुनौतियों का जवाब दें
और सबसे ज़रूरी-युवाओं को बराबरी से जगह दें.
अनुभव का सम्मान ज़रूरी है, लेकिन अगर वही अनुभव युवाओं के लिए दीवार बन जाए, तो देश की रफ्तार धीमी पड़ती है.
प्रदीप फुटेला
वरिष्ठ पत्रकार, संपादक कुमाऊँ केसरी
देहरादून.